क्या यही हमारे शहीदों के सपनों का भारत है

भारतीय गणतंत्र अपने साठवें वर्ष में ऐसे समय प्रवेश कर रहा है जब विश्वव्यापी आर्थिक. मंदी से लगभग अछूती रही देश की अर्थव्यवस्था सात-आठ फीसदी की दर से तरक्की कर रही है। भारत को अब विश्व में पहले की अपेक्षा ज्यादा सम्मान के साथ देखा जाता है, उसकी बात अंतरराष्ट्रीय मंचों पर महत्व रखती है और उसके सुझाव पर गौर किया जाता है। इस बेहद खुशी के अवसर पर देश के घरेलू मोर्चे पर कई सवाल मन में कौंधते हैं जैसे- क्या हमारे नेतागण देश को प्रगति पथ पर सही तरह से ले जा रहे हैं। क्या देश के नागरिक भी अपनी कर्तव्य परायणता को पूरी तरह निभा रहे हैं।


देश के घरेलू परिदृश्य पर गौर करें तो देखेंगे कि देश का अन्नदाता किसान बेहद खस्ता हालत में है और महंगाई चरम पर होने से जनता बेहाल है। सरकार ने अपने कर्मचारियों को छठे वेतन आयोग का लाम तो दे दिया लेकिन बढ़ती महंगाई के दौर में वह भी कम पड़ता दिखाई दे रहा है। निजी कर्मचारियों और मजदूरों की तो बात ही छोड़ दीजिए। वह तो किसी तरह जीवन काट रहे हैं। दूसरी ओर सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद हर विभाग में भ्रष्टाचार कायम है।


इसके अलावा आजादी से पहले जो जातिगत भावनाएं समाज में व्याप्त थीं और जिनको सुधारने के लिए राजा। राममोहन राय जैसी हस्तियों ने दिन-रात एक किया उसे हमारे राजनेताओं ने अपने वोट बैंक के स्वार्थों के चलते मंडल मुकेश गुप्ता और कमंडल के द्वारा बांट दिया। आज कुछ पार्टियां अल्पसंख्यकों । को कुछ यादों को कुछ जाटों को कुछ गुर्जरों को और कुछ जाटों को संतुष्ट करने में लगी हुई हैं। इस प्रकार जातिगत राजनीति करने के चक्कर। में इन पार्टियों ने लोगों को कई वर्गों में विभाजित किया। यहां तक कि हर वर्ग को कई खण्डों में विभाजित कर दिया। सत्ता तक पहुंचने के लिए कुछ पार्टियों ने नौकरियों में आरक्षण दिया। लेकिन इस आरक्षण पद्धति के चलते वह लोग जो सचमुच उक्त पद के हकदार थे उसे हासिल नहीं कर सके।


आतंकवाद आज देश के समक्ष खड़ी बड़ी समस्याओं में से एक है। इस मुद्दे पर हम भले ही अन्य देशों के साथ घोषणापत्र जारी करते हुए आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर मुकाबला करने की बात करते हों परन्तु इस अभियान में घरेलू स्तर पर ही हममें एकता नहीं है। कोई एक दल कुछ करता है तो दूसरा उस पर राजनीति करने लगता है। सिमी पर प्रतिबंध लगता है तो बजरंग दल पर भी प्रतिबंध की मांग होती है। संसद हमले के दोषी अफजल की फांसी को लेकर राजनीति होती है। हमें याद रखना चाहिए कि 11 सितंबर को जब अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ था तो अमेरिकी जनता सहित विपक्षी पार्टी भी कदम से कदम मिलाकर सरकार के साथ चल रही थी लेकिन हमारे यहां राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए किसी भी समय को गंवाना नहीं चाहते फिर चाहे वह समय देश पर संकट का ही क्यों न हो।]


क्षेत्रीय दलों की 'निजी महत्वाकांक्षाओं पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी पिछले दिनों चिंता जता चुके हैं। देश ने अभी हाल ही में तेलंगाना को लेकर हुआ ड्रामा देखा। दरअसल, 1971 की जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद से देश की राजनीति में राष्ट्रीय दलों की अपेक्षाकृत क्षेत्रीय दलों का प्रार्दुभाव हुआ। यह क्षेत्रीय दल जातिगत तथा स्थानीय समस्याओं को उठाकर उभरे थे। इन दलों की मानसिकता सिर्फ अपनी क्षेत्रीय समस्याओं को ही सुलझाने की रही है राष्ट्रीय समस्याओं पर इन दलों का सकारात्मक रुख का इतिहास देखने को नहीं मिलता। ममता बनर्जी, जयललिता, करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू के. चंद्रशेखर राव, मायावती, बाल ठाकरे राज ठाकरे और शिबू सोरेन जैसे कई नाम हैं जो राष्ट्र की अपेक्षा राज्य के प्रति ज्यादा चिंतित दिखते हैं। वामपंथी पार्टियों का तो रुख सदैव से ही अलग दिशा में चलने का रहा है। बात कश्मीर की हो या आतंकवाद की या फिर आर्थिक नीतियों की, वामपंथी कभी भी सरकार से मिल कर नहीं चले। सरकार के साथ थे तब भी और जब सरकार से बाहर हैं तब भीराष्ट्रीयता की जगह क्षेत्रीयता के बोलबाले को देखते हुए हमें रूस का उदाहरण स्मरण करना चाहिए जो कि कभी विश्व का सबसे संगठित और शक्तिशाली देश था लेकिन कमजोर नेतृत्व और क्षेत्रीयता के बढ़ाव के कारण वह टुकड़े-टुकड़े होकर कई देशों में बंट गया और उससे जितने भी देश बने वह आज भी कमजोर नेतृत्व में पश्चिमी देशों की कृपा पर जी रहे हैं। इसके अलावा, देश में राज्यों और केन्द्र में अलग-अलग विचारों की सरकार होने से देश के विकास में बाधा आ रही है क्योंकि विभिन्न विचारों की सरकार होने के कारण कोई एक सोच निर्धारित नहीं हो पा रही है और जिस राज्य में गैरकांग्रेसी सरकार है वह यह आरोप लगाती है कि विकास इसलिए नहीं हो पा रहा क्योंकि केंद्र रोड़े अटका रहा है जबकि केंद्र कहता है कि हमने पैसा दिया लेकिन राज्य सरकार ने इसका इस्तेमाल ही नहीं किया। देश की आधी आबादी यानि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण की बात करते हुए देश के नेताओं को एक दशक से ज्यादा हो गया लेकिन अभी भी यह तय नहीं है कि यह वादा कब पूरा होगा। हालांकि वर्तमान सरकार इसका इस्तेमाल ही नहीं किया। देश की आधी आबादी यानि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण की बात करते हुए देश के नेताओं को एक दशक से ज्यादा हो गया लेकिन अभी भी यह तय नहीं है कि यह वादा कब पूरा होगा। हालांकि वर्तमान सरकार ने इसे अपने चुनावी वादों में शामिल किया है लेकिन इस पर विभिन्न दलों में जिस प्रकार मत मिन्नता है उसे देखते हुए यह शीघ्र अमल में आता प्रतीत नहीं होता।